Wednesday, July 29, 2009

फर्जी

रात के अंधियारे में
भटकता
मेरा नग्न मन
ढूँढता
उस फरशि को
उसके फरर्शीसलाम को
जो कहने को
मेरा मित्र था
पर फर्जी था

रामानुज दुबे

Monday, July 27, 2009

टिकट

मुझे
उस चोटीधारी भइया का
अकारण उमड़ा
मुस्लिम प्रेम
उसदिन
समझ में आया
जिसदिन
उन्होने
एक तथाकथित
सेकुलर पार्टी से
चुनाव में टिकट पाया

रामानुज दुबे

Friday, July 24, 2009

वह औरत

वह अस्पताल के बाहर
फर्श पर पड़ी
प्रसव वेदना से छटपटा रही थी
उसका पति
मुह में पान चबाये
उसकी पीडा को
बिना दिल में लाये
नर्स से बतिया रहा था
नर्स को
समझा रहा था
कह रहा था
यह नव्ब्मी बार का चक्कर है
अब तक आठ जन चुकी है
पाँच मरा है
तीन खड़ा है
का कहें मैडम
इस औरत का
किस्मत ही सड़ा है
लड़की जनती है हरवार
ना चाहते भी
आना पड़ता है अस्पताल
हजारों खर्च कराएगी
फ़िर एक लड़की
यहाँ से लेके जायेगी
ना जीती है
ना मरती है
सर का बोझ है
दिनभर हमसे लड़ती है
आएये मैडम
जल्दी इस बार का काम निबटाइये
हमको तो फिर
आना ही है अगले साल
जबतक नर्स
अस्पताल के बाहर निकली
तब तक वह औरत
मर चुकी थी
आसमान की ओर मुंह फॉड़े
शायद पूरी दुनिया से कुछ कह रही थी

ऎसी औरत मै रोज देखता हूँ
र्फक सिर्फ़ इतना है
यह औरत
फर्श पर लेटी, मरी पड़ी है
दूसरी औरत
जिन्दा है चल रही

रामानुज दुबे

Friday, July 10, 2009

आस

नपुंसक समाज की आस
विदग्धा पर टिकी है आज
पर अफ़सोस
वो भी इतराकर
केवल कर रही
अपना श्रृंगार
आज देखा मैंने
एक भिखारन को
अस्त व्यस्त
दिख रहा था
आँचल स्पष्ट
सोचने लगा
ये भी कोई
मार्केटिंग का
नया अंदाज है
या दिल्ली मे
कपड़े का अकाल है
रामानुज दुबे