Wednesday, August 19, 2009

सही या ग़लत

कर्म में रत मन हमारा
रंग लेगा अलग
आग पानी को मिलाके
लाऊंगा इक नई सुबह
तुम भले मुझको न समझो
हम ग़लत या तुम ग़लत
आ गले मिल जाए हमतुम
बाँट लें अपनी समझ
चाँद सूरज और धरती
लाना है सब इक जगह
उलझ कर काँटों और पथ्थरो में
क्यो गवाते हो समय
गर तुम्हे लगता ये सपना
बस हँसी भर खेल है
फ़िर तो समझूंगा यही में
में सही हूँ तू ग़लत

रामानुज दुबे

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