कर्म में रत मन हमारा
रंग लेगा अलग
आग पानी को मिलाके
लाऊंगा इक नई सुबह
तुम भले मुझको न समझो
हम ग़लत या तुम ग़लत
आ गले मिल जाए हमतुम
बाँट लें अपनी समझ
चाँद सूरज और धरती
लाना है सब इक जगह
उलझ कर काँटों और पथ्थरो में
क्यो गवाते हो समय
गर तुम्हे लगता ये सपना
बस हँसी भर खेल है
फ़िर तो समझूंगा यही में
में सही हूँ तू ग़लत
रामानुज दुबे
dedicated to my batch mate PGDRDM 2009-2010
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