Wednesday, August 19, 2009

सही या ग़लत

कर्म में रत मन हमारा
रंग लेगा अलग
आग पानी को मिलाके
लाऊंगा इक नई सुबह
तुम भले मुझको न समझो
हम ग़लत या तुम ग़लत
आ गले मिल जाए हमतुम
बाँट लें अपनी समझ
चाँद सूरज और धरती
लाना है सब इक जगह
उलझ कर काँटों और पथ्थरो में
क्यो गवाते हो समय
गर तुम्हे लगता ये सपना
बस हँसी भर खेल है
फ़िर तो समझूंगा यही में
में सही हूँ तू ग़लत

रामानुज दुबे

Monday, August 3, 2009

जस के तस

आंबेडकर
अब तुम बिकने की चीज़ बन गए हो

पहले बिका गाँधी
फ़िर बिका राम
बिकता रहा यहाँ
ईमाम और सद्दाम
तुम भी आजकल
बिक रहे हो
बाजार में सरेआम

आंबेडकर
अब तुम बिकने की चीज़ बन गए हो

तुम एक नाम थे
सिधांत थे
संस्थान थे
बाजारी संस्कृति में
गुमनाम थे
दुहाई हो
गरीबी की दलित की
बड़ी जात की जमात की
नेताओ की चुनाव की
तेरे नाम में छुपे
आशा और विश्वास की

आंबेडकर
अब तुम बिकने की चीज़ बन गए हो

बेचते तुम्हे है हर कोई
अवर्ण भी
सवर्ण भी
इतिहासकार भी
चाटुकार भी
दलाल भी
नाटककार भी
और तेरे
सगे सिपहसलार भी

आंबेडकर
तुम समझने की चीज़ हो
उस नासमझ समाज के लिए
जो अँधा और बहरा है
सदियों से
गंदले पानी सा ठहरा है

पर तुम्हे
बना दिया गया है एक प्रोडक्ट
बिक रहे तुम फटाफट
तेरे तो बन रहे
हर जगह बुत प्रस्तर
दलित अब भी है
जस के तस

रामानुज दुबे